*ॐ श्री परमात्मने नमः*
*‘तृप्ति होती नहीं’‒यह नित्यविरह है, और ‘छूटता है नहीं’‒यह नित्यमिलन है । ‘तृप्ति होती नहीं’‒इसमें भाव (प्राप्ति) और अभाव (कमी) दोनों हैं । अपनी तरफ भी देखें तो सत्संगमें पदगान, कीर्तन सुननेके बाद भी और सुननेकी इच्छा होती है‒यह नित्यविरह और नित्यमिलन है । आनन्दका अनुभव होता है‒यह नित्यमिलन है । और होता रहे, भजन-कीर्तन होता रहे‒यह नित्यविरह है ।*
*ज्ञानमें तो सन्तोष हो जाता है, पर प्रेममें सन्तोष नहीं होता । ज्ञानमें स्वरूपमें स्थिति होती है, पर प्रेममें स्थिति नहीं होती, प्रत्युत प्रतिक्षण वर्धमानता होती है । प्रेममें सन्तोष नहीं होता‒यह नित्यविरह है ।*
*भगवान् भी प्रेमके भूखे हैं, इसलिये उनके भीतर संकल्प हुआ‒‘एकाकी न रमते’ (बृहदारण्यक॰ १ । ४ । ३) । भूखमें अभाव होता है । मेरे मनमें सुननेकी भी आती है और सुनानेकी भी आती है । शंकरजीके मनमें सुनानेकी आती है और पार्वतीजीके मनमें सुननेकी आती है तो क्या उनमें कोई कमी है ? शंकरजी भगवान् कृष्णके दर्शन करने वाराणसीसे आते हैं तो उनमें कमी तो है ही, तभी दर्शन करनेकी मनमें आयी ! पूर्णता भी है और अभाव भी है ! कमी नहीं है और कमी है‒यह प्रेमकी अनिर्वचनीयता है । यही नित्यविरह और नित्ययोग है !*
*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज*
_(‘रहस्यमयी-वार्ता’ पुस्तकसे)_
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